Jul 13, 2008

ग़ज़ल " अपनी बातों में असर पैदा कर

अपनी बातों में असर पैदा कर
तू समन्दर सा जिगर पैदा कर

बात इक तरफा न बनती है कभी,
जो इधर है वो उधर पैदा कर ।

बात है मीर में जो गालिब में ,
शायरी में वो हुनर पैदा कर ।

अपनी पहचान हो न मज़हब से,
मुल्क़ में ऐसी लहर पैदा कर ।

कुछ भरोसा नहीं है सूरज का,
तू नई रोज़ सहर पैदा कर ।

जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’
एक बच्चे सी नज़र पैदा कर



शरद के स्वर में भी सुनें

2 comments:

डा ’मणि said...

आदरणीय भाई साहब
सादर अभिवादन
आपका खूबसूरत , सशक्त , और समर्थ ब्लॉग देखा ,
ग़ज़ल अभ दो ही पढ़ पाया हूँ ,
'अपनी बातों मे असर पैदा कर '
वाकई अच्छी ग़ज़ल है ,यूँ तो सारे शेर वजनी हैं पर
" अपनी पहचान न हो मज़हब से
मुल्क मे ऐसी लहर पैदा कर " का मज़ा आ गया , बधाई हो
ये बात बहुत शान दार है , बस एक चीज़ देखिए गा
अपनी पहचान 'न' हो , पढ़ने मे कुछ अटक सी आ रही है
इसे अपनी पहचान ' हो ' न मज़हब से , ज़्यादा आसानी से पढ़ा जाएगा "शायद "
वैसे ये मेरा अपना विचार है , बाकी ग़ज़ल मस्त है , आनंद आ गया

चलिए कल रात की दो पंक्तियाँ भेज रहा हूँ देखिएगा
" देख लो नज़रें उठाकर हर तरफ
हो रही हैं साजिशें अलगाव की
गीत ग़ज़लों के विषय बदलो ज़रा
अब ज़रूरत है बहुत बदलाव की "


शेष फिर
आपका अनुज
डॉ. उदय 'मणि ' कौशिक
umkaushik@gmail.com
http://mainsamayhun.blogspot.com

भाई साहब अपने ब्लॉग से कृपया word verification को शुरुआत मे हटा ले , इससे कमेंट्स की संख्या बढ़ जाएगी

sunil-11 said...

गज़ल है गज़ब.
पद्कर विचार हिल जाते है.

सुनिल अग्रवाल