Jul 21, 2008

ग़ज़ल : तलवारें जब भी मियान मे...

तलवारें जब भी मियान में ख़ुद को कै़द समझतीं हैं,
ऐसा दौर तभी आता है ख़ून की नदियां बहतीं हैं ।

बचपन हँसी ख़ुशी बीता करता था जिनको सुन सुनकर,
वे कहानियाँ दादी के होठों पर आज तड़पतीं हैं ।

उनका धीरज टूट गया या यह ऐलान-ए-बगा़बत है,
बिन मौसम जो आज बदलियाँ चारों ओर बरसतीं हैं ।

दु:ख में भी मस्ती बिखेरना सीखे कोई कलियों से,
पल भर का जीवन पाकर भी देखो खूब महकतीं हैं ।

अपनों से आतंकित हो कर चलें दूसरी दुनियां में,
शायद अब ये सोच मछलियाँ खुद ही जाल में फंसतीं हैं ।

वही ढा़क के तीन पात हैं चाल वही बेढ़ंगी है,
कहने को तो कितनी ही सरकारे ’शरद’ बदलतीं हैं ।

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