तलवारें जब भी मियान में ख़ुद को कै़द समझतीं हैं,
ऐसा दौर तभी आता है ख़ून की नदियां बहतीं हैं ।
बचपन हँसी ख़ुशी बीता करता था जिनको सुन सुनकर,
वे कहानियाँ दादी के होठों पर आज तड़पतीं हैं ।
उनका धीरज टूट गया या यह ऐलान-ए-बगा़बत है,
बिन मौसम जो आज बदलियाँ चारों ओर बरसतीं हैं ।
दु:ख में भी मस्ती बिखेरना सीखे कोई कलियों से,
पल भर का जीवन पाकर भी देखो खूब महकतीं हैं ।
अपनों से आतंकित हो कर चलें दूसरी दुनियां में,
शायद अब ये सोच मछलियाँ खुद ही जाल में फंसतीं हैं ।
वही ढा़क के तीन पात हैं चाल वही बेढ़ंगी है,
कहने को तो कितनी ही सरकारे ’शरद’ बदलतीं हैं ।
Jul 21, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment