May 28, 2013

मेरी पुस्तक गुस्से मेँ हैँ भैँस का लोकर्पण : व्यँग्यकार गिरीश पँकज, मैँ, प्रदीप पँत, डॉ हरीश नवल, डॉ नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी तथा डॉ अतुल चतुर्वेदी
लालसोट मेँ "गुस्से मेँ है भैँस" पर सम्मान हेमंत शेष द्वारा साथ मेँ श्री मुदगल, तथा स्व. तारादत्त 'निर्विरोध'

ग़ज़ल

दिन से ज़्यादा इसलिये ही रात भाती है मुझे,
मेरी दादी बैठकर क़िस्से सुनाती है मुझे ।

भूलने की जब भी कोशिश, मैं तुझे करने लगूं,
याद की ख़ुशबू तुम्हारे पास लाती है मुझे ।

वो लता मंगेशकर से भी लगे सुर में अधिक,
जब मेरी माँ लोरियाँ गाकर सुलाती है मुझे ।

है कुआँ इस ओर तो खाई भी है दूजी तरफ़ ,
ज़िन्दगी ऐसी भी राहों पर चलाती है मुझे ।

चाँद ने सूरज से पूछा- रोज़ का चक्कर ये क्यूँ ?,
तब कहा सूरज ने ' ये धरती लुभाती है मुझे ।

जो भी दिन गुज़रे हैँ वो फिर लौटकर आते नहीँ,
बस यही इक बात रह रह्कर सताती है मुझे


ग़ज़ल

ग़ज़ल

बहारों ने कभी फूलों की मक्कारी नहीं देखी
निभाई हो कभी शूलों ने भी यारी,नहीं देखी ।

यहाँ छोटी बड़ी हर बात पर तुम रूठ जाते हो
ख़ुदाया हमने तो ऐसी अदाकारी नहीं देखी ।

हमारी राह में काँटे बिछाने से न कुछ होगा , 
हमारे इस सफ़र की तुमने तैयारी नहीं देखी ।

यहाँ अपने पराए में सदा ही भेद रहता है
परिन्दों में कभी हमने ये बीमारी नहीं देखी ।

अगर उनसे मुहब्बत थी तो खुलकर कह दिया होता
मगर शब्दों की हमने ऐसी ख़ुद्दारी नहीं देखी ।

शरद' अब भी ग़ज़ल के साथ इक घर में ही रहता है
कभी लोगों ने उसकी कोई लाचारी नहीं देखी