Sep 10, 2009

ग़ज़ल : ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है

ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है,
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।

मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।

हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।

चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।

चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।


वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।

Sep 1, 2009

शरद तैलंग ’सृजन रतन सम्मान से सम्मानित २५.०८.०९


साथ में स्वप्नेश रतन, डॊ. गंगानी, डॊ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी एवं महेन्द्र नेह

साहित्यकार श्रीमती कमला’कमलेश’ से सम्मान प्राप्त करते हुए

ग़ज़ल : कभी जागीर बदलेगी कभी सरकार बदलेगी

कभी जागीर बदलेगी, कभी सरकार बदलेगी ।
मग़र तक़दीर तो अपनी बता कब यार बदलेगी ?

अगर सागर की यूं ही प्यास जो बढती गई दिन दिन,
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी ।

हज़ारों साल में जब दीदावर होता है इक पैदा,
ऒ ! नर्गिस अपने रोने की तू कब रफ़्तार बदलेगी ?

सदा कल के मुकाबिल आज को हम कोसते आए,
मगर इस आज की सूरत भी कल हर बार बदलेगी ।

वो सीना चीर के नदिया का फिर आगे को बढ़ जाना,
बुरी आदत सफ़ीनों की भंवर की धार बदलेगी ।

’शरद’ पढ़ लिख गया है पर अभी फ़ाके बिताता है,

ख़बर उसको न थी क़िस्मत , जो हों कलदार बदलेगी ।

Mar 21, 2009

ग़ज़ल " फ़ना जब भी हमारे राज़ होंगे.

फ़ना जब भी हमारे राज़ होंगे,
तो जीने के अलग अन्दाज़ होंगे ।

खफ़ा उनसे मैं होना चाहता हूँ,
मग़र डर है कि वो नाराज़ होंगे ।

ज़रा पन्नों को हौले से पलटना,
वहाँ नाज़ुक- से कुछ अल्फ़ाज़ होंगे ।

बहुत महफ़ूज़ है पिंजड़े में चिड़िया,
गगन में तो हज़ारों बाज़ होंगे ।

अभी तो हैं तमंचे उनके हाथों,
वो दिन कब आएगा जब साज़ होंगे ।

’शरद’ के राज़ ही जो खोलता हो ,
तो फ़िर उसके वो क्यों हमराज़ होंगे ।


शरद के स्वर में भी सुनें

Jan 28, 2009

ग़ज़ल : मेरा साया मुझे हर वक्त कुछ

मेरा साया मुझे हर वक़्त कुछ बदला सा लगता है,
मगर ये साथ देता है तो फ़िर अपना सा लगता है।

बिताते हैं सितारे भी तो रातें जाग कर हरदम,
अब अपना दर्द उनके सामने अदना सा लगता है।

नदी जब सूख जाती है किनारे खुश बहुत होते ,
दख़ल देना किसी का बीच में गन्दा सा लगता है।

अगरबत्ती जलाने का हो मक़सद कुछ भी अब उनका,
मुझे ये क़ैद से खुशबू रिहा करना सा लगता है।

भले कितना बडा़ बन जाए अब इन्सान दुनिया में,
मगर वो उस की माँ को तो सदा बच्चा सा लगता है।

क़लम अपनी भी इक दिन देखना दुनिया बदल देगी,
’शरद’ ये सोचता है तो उसे सपना सा लगता है।



शरद के स्वर में भी सुनें