ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है,
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।
चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।
वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।
चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।
वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।
10 comments:
वड़्ती उम्र के सन्दर्भ मे अच्छी शायरी
ख़ून परवाने का उसके मुँह लगा है,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
वाह वाह वाह !!! लाजवाब !!! बहुत बहुत सुन्दर....सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं,पर यह शेर तो सरताज लगा...
शरद जी नमस्कार,
आपकी ग़ज़ल पढी और बहुत अच्छी लगी , हर शे'र अपनी अपनी दास्तान कह रहा है ,.. हर शे'र में अलग अलग ताज़र्बाकारी की बातें की है आपने और वही सच्ची और अच्छी बात होती है ग़ज़लकर की ... बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं...
अर्श
ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है,
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
अच्छा शेर हैं ,.. बढ़िया ग़ज़ल.
आपको पहली बार पढ़ा, अच्छा अनुभव रहा
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Tech Prevue: तकनीक दृष्टा
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
बहुत बढ़िया रचना....
वाह साहबा!! बहुत मजा गया इस उम्दा गज़ल को पढ़.
सामने बैठी थी वह शर्म आंखों में समाए
मुझको घुंघट न सलीके से उठानी आइ
क्या करूं था उम्र का यही मकाजा
ढल गइ उम्र तो गजलों पे जवानी आइ।
ख़ून परवाने का उसके मुँह लगा है,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
Wah! Aur koyi shabd nahi!
ख़ून परवाने का उसके मुँह लगा है,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
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