Aug 8, 2008
Jul 31, 2008
ग़ज़ल : उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
तुम कभी बचपन के दिन भी याद करना ।
लौट आएं फिर से वो गुज़रे ज़माने,
तुम खुदा से बस यही फ़रियाद करना ।
दिल तुम्हारा भी उडेगा आस्मां में ,
कै़द से पंछी कोई आज़ाद करना ।
तुम न रहना नाखुदा के ही भरोसे ,
तुम खुदा को भी सफ़र में याद करना ।
कब मिलेगा वक़्त जो हमको मिला है ?
बेवज़ह ही मत इसे बरबाद करना ।
मोम की मानिन्द रखना दिल को अपने,
हौसले को पर ’शरद’ फ़ौलाद करना ।
Jul 25, 2008
ग़ज़ल : इस जहाँ में अब ये किस्सा आम है
प्यार जो करता है वो बदनाम है ।
वो तो इंसां को खुदा है मानता ,
इस तरह का मुझ पे इक इल्जा़म है ।
सारी दुनियां को वो ठोकर मारता,
जिसके हाथों में सुरा और् जाम है ।
खुश है वो बाजी़ बिछा कर मुल्क़ मेँ,
जिनके पत्तों में तुरुप भी राम है ।
या खुदा अगले जनम ये मत कहूं ,
पिछले जन्मों का ही ये अञ्जाम है ।
कह गए रहिमन कि पानी राखिए,
आजकल रोटी का मँहगा दाम है ।
ज़िक्र जिसका हर जु़बां पर आ रहा,
उसके होठों पर ’शरद’ का नाम है ।
Jul 24, 2008
ग़ज़ल : दर्द के साथ दोस्ती कर ली
इसलिए मैंनें खुद्कुशी कर ली ।
अश्क़ आँखों में कै़द रह न सके,
दिल की हालत की मुखबरी कर ली ।
उनकी आँखों में जो सागर देखा,
हमने आँखों में इक नदी कर ली ।
ज़िन्दगी को संवारने के लिए,
हमने बरबाद ज़िन्दगी कर ली ।
हाले दिल जब किसी से कह न सका,
मैनें हमराज़ डायरी कर ली ।
अब इबादत का घर भी साफ़ नहीं,
हमने उसमें भी गन्दगी कर ली ।
मेरी हिम्मत की दाद दें मैनें,
शायरों बीच शायरी कर ली ।
दोस्त उसका भी क्या बना तू ’शरद’,
इस जहाँ से ही दुश्मनी कर ली ।
Jul 23, 2008
ग़ज़ल : बहुत से लोग नंगे पाँव जब..
उन्हें बस देखने भर से हमारे पैर जलते हैं ।
न जाने क्यूं खु़दा करता है इतना भेद बच्चों में ,
कोई महलों में रहते हैं कोई गलियों में पलते हैं ।
ये दौलत हाथ का है मैल कहते है सुना सबको,
जिन्हें मिलती नहीं है वे तभी तो हाथ मलते हैं ।
भले सूरज के जैसा कोई भी बन जाए दुनियां में,
पर ऐसे लोग भी जब वक़्त आता है तो ढ़लते हैं ।
बुजु़र्गों की बदौलत ही रिवायत है अभी ज़िन्दा
नहीं तो हम सभी बस वक़्त के साँचे में ढ़लते हैं ।
बिना सोचे, बिना समझे जो कुछ भी बोलते रहते,
कुछ ऐसे शख्स़ ही दुनियां में सब लोगों को खलते हैं ।
ग़ज़ल सुनकर ’शरद’ की लोग आपस में लगे कहने,
रहा सुनने को कुछ बाक़ी नहीं, अब घर को चलते हैं ।
Jul 22, 2008
ग़ज़ल : यारी जो समन्दर को निभानी..
ये तय था सफ़ीनों में रवानी नही आती ।
ये सच है हवा ने ही दगा़ कर दिया वरना-
क्या हम को पतंगें भी उडा़नी नहीं आती ?
साँपों के शहर में समझों मौत है उसकी ,
जिसको भी मधुर बीन बजानी नहीं आती ।
सारे ही सुबू्तॊं की जुबां बन्द जो रहती,
लोगों के जेहन में ये कहानी नहीं आती ।
रिश्तों में भी बदलाव ज़माने में है आया,
अब याद गर्दिशों में भी नानी नहीं आती ।
सीने में समाई है मेरे प्यार की दौलत,
वैसे भी हमें पीठ दिखानी नहीं आती ।
कुछ तुम भी अपनी बात कहो हम भी तो बोलें,
हर रोज़ ऐसी शाम सुहानी नहीं आती ।
जब छाए ’शरद’ महफ़िल में लोग ये बोले ,
औरों को ऐसी चीज़ सुनानी नहीं आती ।
Jul 21, 2008
ग़ज़ल : जब तलक आसमान बाकी है
पंछियों की उडान बाकी़ है ।
अभी लंका ही ठीक है सीता,
अभी इक इम्तहान बाक़ी है ।
चीर ज्यों द्रोपदी का बढ़ता गया,
उसका अब भी लगान बाकी़ है ।
शेर पेडो़ पे चढ़ नही पाए,
इसलिए ये मचान बाकी़ है ।
कैसे निर्दोष मैं कहूं खुद को,
अभी तेरा बयान बाकी़ है ।
ये ग़ज़ल सबको भली लगती है,
इसके शे’रों में जान बाकी़ है ।
माल लूटा ’शरद’ रकीबों ने,
अब तो बस दास्तान बाकी़ है ।
ग़ज़ल : तलवारें जब भी मियान मे...
ऐसा दौर तभी आता है ख़ून की नदियां बहतीं हैं ।
बचपन हँसी ख़ुशी बीता करता था जिनको सुन सुनकर,
वे कहानियाँ दादी के होठों पर आज तड़पतीं हैं ।
उनका धीरज टूट गया या यह ऐलान-ए-बगा़बत है,
बिन मौसम जो आज बदलियाँ चारों ओर बरसतीं हैं ।
दु:ख में भी मस्ती बिखेरना सीखे कोई कलियों से,
पल भर का जीवन पाकर भी देखो खूब महकतीं हैं ।
अपनों से आतंकित हो कर चलें दूसरी दुनियां में,
शायद अब ये सोच मछलियाँ खुद ही जाल में फंसतीं हैं ।
वही ढा़क के तीन पात हैं चाल वही बेढ़ंगी है,
कहने को तो कितनी ही सरकारे ’शरद’ बदलतीं हैं ।
ग़ज़ल : आंतडियों से मिलकर उसका ..
ख़ंजर का चेहरा भी देखो शरम के मारे लाल हुआ ।
एक समन्दर के बावत बस इतना ही हम जान सके,
कई कश्तियां लील गया वो तभी तो मालामाल हुआ ।
फूलों ने तानाशाही का वो भी आलम देखा है,
जिसने गर्दन ऊँची की गुलशन में वही हलाल हुआ ।
मुझे देखते ही वो उठकर जब चुपचाप लगे जाने,
समझ गया कि मेरे नाम पर उनके घर में बबाल हुआ ।
चाँद पे जब आदम पहुँचा तो देख वहाँ की हालत को,
इसीलिए क्या घर छोड़ा था मन में एक सवाल हुआ ।
ज्योतिषियों ने मेरे मरने का जो दिन बतलाया था,
निकल गया पर मौत न आई दिल में यही मलाल हुआ ।
Jul 20, 2008
ग़ज़ल : इन दुकानों में सजा सामान ...
पहले जैसा अब कहाँ पर तीज या त्यौहार है ।
दीप थोडी़ देर ही जलकर के देखो बुझ गए,
अब न वैसा तेल है न तेल में वो धार है ।
खिड़कियाँ ही जब मकानों की सड़क की ओर हैं,
फिर शिकायत क्यों ? सड़क का आदमी बदकार है ।
सिर्फ़ नेताओं की बातें, क़त्ल, चोरी, अपहरण,
बस यही मिलता जहां वो मुल्क़ का अख़बार है ।
तुम मुबारकबाद दिल से दो या मत दो ग़म नहीं,
खा के दावत, दो लिफ़ाफा ये बचा व्यवहार है ।
भेद अश्कों ने कभी ग़म और खुशी में न किया,
दोनों सूरत में छलककर कर दिया इज़हार है ।
क्यूं जनम लेता नहीं किस सोच में बैठा है वो ?
आज भी धरती पे चारों ओर अत्याचार है ।
तू ’शरद’ यारों की खातिर चैन से कब रह सका,
तुझको आता ही नहीं करना कभी इनकार है ।
Jul 19, 2008
ग़ज़ल : हमारी मिन्नतों पर वो अगर कुछ ..
ज़माना नाम उसको फिर कभी भगवान न देता ।
मुझे हर हाल में चाहत तुम्हारी ज़िन्दा रखनी थी,
तुम्हारे इक इशारे पर मैं वरना जान न देता ।
न होती उसको मेरे चैन से सोने की जो चिन्ता,
मुझे आराम करने के लिए शमशान न देता ।
हुकूमत न रही उसकी, खबर जाहिर न की उसने,
यही डर था कि फिर कोई उसे सम्मान न देता ।
सज़ा उसकी सुनी तो मैं भी अन्दर तक तड़प उट्ठा,
यही अब दिल में आता है कि मैं वो बयान न देता ।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे सिर्फ़ अब मेले ?
अगर वो जानता तो देश पर बलिदान न देता ।
ग़ज़ल : ग़र ज़माने का करम उसको कभी
वो सज़ा हमको मिलेगी सब यहाँ जल जाएगा ।
यूं तो हमने खैरियत लिख दी उन्हें मज़मून में,
हम शिकस्ता हाल हैं उनको पता चल जाएगा ।
इतनी बारिश में अगर जो घर तुम्हारा बह गया,
फ़िक्र क्या है अब ख़ुदा के घर में तू पल जाएगा ।
हमने पूछा उस जगह अब क्यूं इबादत बन्द है,
हँस के बोले कुछ दिनों तक हादसा टल जाएगा ।
डाकिए ने मौत की चिट्ठी न पंहुचाई ’शरद’,
ये समझकर ’जो यहाँ आया है सो कल जाएगा ।
ग़ज़ल : जब दिलों में प्यार का मंज़र बनेगा
देखना उस दिन ख़ुदा का घर बनेगा ।
बन गया अपने वतन का वो तो लीड़र,
कुण्डली में था कि जो तस्कर बनेगा ।
है यकीं इक दिन ख़ुदा देगा मुझे भी,
पर न जाने कब मेरा छ्प्पर बनेगा ।
सांस ले ली बाप ने भी आख़िरी अब,
फूल जैसा भाई भी नश्तर बनेगा ।
लग गई फिर आग कच्ची बस्तियों में,
सुन रहे इक सेठ का दफ़्तर बनेगा ।
अब भटकने का ’शरद’ को डर नहीं है,
उसका रहबर मील का पत्थर बनेगा ।
ग़ज़ल : इतना ही एहसास बहुत है
वो अब मेरे पास बहुत है ।
उसके आगे सच्चे मन से,
दो पल ही अरदास बहुत है ।
क़िस्मत न हो सीता जैसी,
महल हैं कम, बनवास बहुत है ।
जो हैं पानीदार यहाँ पर,
उनकी देखो प्यास बहुत है ।
ये सुनना गाली लगता है,
’तू अफ़सर का खा़स बहुत है’ ।
अन्तिम इच्छा पूछ रहे हो,
जब जीने की आस बहुत है ।
जो मज़हब सबको जीने दे,
उस पर ही विश्वास बहुत है ।
कुछ सराहते ग़ज़ल ’शरद’ की,
कुछ कहते बकबास बहुत है ।
शरद के स्वर में भी सुनें
ग़ज़ल : पत्थ्रर सा जो दिल होता है
वो फिर किस काबिल होता है ।
तुझे भूलने की कोशिश ही,
काम बड़ा मुश्किल होता है ।
पहले तिल तिल खुद मरता है ,
तब कोई का़तिल होता है ।
कागज़ पर मैं दिल रख देता,
जि़क्र सरे महफ़िल होता है ।
क़हर तो लहरें ही ढ़ातीं हैं,
रुस्वा हर साहिल होता है ।
जब तक आए नहीं फ़ैसला,
वक्त बड़ा बोझिल होता है ।
क़िस्मत देखो आज ’शरद’ भी,
कवियों में शामिल होता है ।
ग़ज़ल : बस्तियों के लोग
इसलिए अपराध दंगे हो रहे हैं ।
उनको अपना घर बनाने की है सूझी,
मन्दिरों के नाम चन्दे हो रहे हैं ।
जो लगाने में है माहिर एक मजमा,
सन्त और ईसा के बन्दे हो रहे हैं ।
क़ातिल-ओ-मुंसिफ मिले जल्लाद से,
बेअसर फाँसी के फन्दे हो रहे हैं ।
आप दिल से ही दुआ दे दीजिए,
सोचिए मत हाथ गन्दे हो रहे हैं ।
कल तलक जो गालियां देते रहे थे,
वे ’शरद’ अर्थी के कन्धे हो रहे हैं ।
ग़ज़ल : जब से मेघों से मुहब्बत हो गई
सूर्य की धुंधली सी रंगत हो गई है ।
झूमता है चन्द्रमुख को देख सागर,
आदमी सी इसकी आदत हो गई है ।
ख़ुद को बौना कर लिया है आदमी ने,
उस पे हाबी अब शरारत हो गई है ।
जाने कितने लोग इस दिल में बसे हैं,
बस्तियों सी इसकी हालत हो गई है ।
जब मुहब्बत का सबक पढ़ने लगे तो,
उससे छोटी हर इबादत हो गई है ।
मिल रहीं इस बात से खुशियाँ ’शरद’ को
दूसरों को ग़म में राहत हो गई है ।
Jul 18, 2008
ग़ज़ल : पुराने आईने में शक्ल कुछ
कभी सीधी नज़र आई, कभी टेढ़ी नज़र आई ।
हवा से बेरुखी थी तो क़दम मुश्किल से उठते थे,
हुई जब दोस्ती तो चाल में तेज़ी नज़र आई ।
लुटी जब आबरु उसकी तो मैं भी चुप लगा बैठा,
मग़र फिर ख्बाब में अपनी बहन बेटी नज़र आई ।
चले थे खोजने हम मुल्क़ में नायाब चीज़ों को,
तो हमको सबसे बढ़ कर एक बस कुर्सी नज़र आई ।
मैं चलते चलते थककर गिरने ही वाला था सहरा में
मग़र फिर दूर वीराने में इक बस्ती नज़र आई ।
न अपना गाँव है कोई न कोई घर - ठिकाना है,
वहीं डेरा किया हमने जहां रोटी नज़र आई ।
पुकारा जब ’शरद’ का नाम महफ़िल में तो सच पूछो,
उसे बिगडी़ हुई तक़दीर भी बनती नज़र आई ।
विकल्प के कार्यक्रम में कवि एवं शायर
ग़ज़ल : दिल के छालों का ज़िक्र आता है
उनकी चालों का ज़िक्र आता है ।
प्यार अब बांटने की चीज़ नहीं,
शूल, भालों का ज़िक्र आता है ।
सूर, मीरां, कबीर मिलते नहीं,
बस रिसालों का ज़िक्र आता है ।
लोग जब हक़ की बात करते हैं,
बन्द तालों का ज़िक्र आता है ।
जब बिना शह ही मात खाई है,
कुछ दलालों का ज़िक्र आता है ।
आग जब दिल में जलने लगती है,
तब मशालों का ज़िक्र आता है ।
जल के मिट तो रहे थे परवाने,
पर उजालों का ज़िक्र आता है ।
पाँच वर्षों में ’शरद’ भूखों के,
फिर निवालों का ज़िक्र आता है ।
ग़ज़ल : आप तो बस अपने दम खम..
किसलिए फिर मुझमें हम दम देखते हैं ।
याद जब आते कभी बचपन के वो दिन,
तब पुराने एलबम हम देखते हैं ।
हमने खंज़र को भी दिल से है लगाया,
किस तरह निकलेगा ये दम देखते हैं ।
जो तकाजे़ के लिए बैठे हैं घर में,
चिलमनों की ओर हरदम देखते हैं ।
क्या सियासत की हवा चलने लगी है ?
का़तिलों के पास मरहम देखते हैं ।
मौत पर उनकी भले कोई न रोए,
पर झुके आधे ये परचम देखते हैं ।
महफ़िलों में जब से शिरकत की ’शरद’ ने,
लोग औरों की तरफ़ कम देखते हैं ।
शरद के स्वर में भी सुनें
Jul 17, 2008
ग़ज़ल : आखिरी वक्त यूं तो दूर न था
वो तो शायद उसे मंजू़र न था ।
मुझे मालिक का नमक ले बैठा,
वरना इतना कभी मजबूर न था ।
कौन सा ऐसा ज़माना था कहो,
किस ज़माने में ये दस्तूर न था ।
फिर गए साल ये सौगात मिली,
फिर कई मांगों में सिन्दूर न था ।
अब कोई लाख़ बहाने कर ले,
गाँव वो शहर से कुछ दूर न था ।
नाम उनका है जो बदनाम हैं लोग,
तू ’शरद’ इसलिए मशहूर न था ।
ग़ज़ल : ये बडा एहसान है
हर क़दम पर अब यहाँ भगवान है ।
जो बुझा पाई न नन्हे दीप को,
ये हवाओं का भी तो अपमान है ।
फिर खिलौनों की दुकाने सज गईं,
मुश्किलों में बाप की अब जान है ।
दफ़्न है सीने में मेरी आरजू़ ,
बन गया दिल जैसे कब्रिस्तान है ।
देखता ही शब्द बेचारा रहा,
अर्थ को मिलता रहा सम्मान है ।
जब कोई प्यारा सा बच्चा हँस दिया,
यूं लगे सरगम भरी इक तान है ।
आप सबके ख्बाब हो पूरे सभी,
बस ’शरद’ के दिल में ये अरमान है ।
शरद के स्वर में भी सुनें
गज़ल : जब कबाडी़ घर से कुछ
वो मेरे बचपन की यादें भी सुहानी ले गया ।
इस तरह सौदा किया है आदमी से वक़्त ने,
तज़रुबे कुछ दे के वो उसकी जवानी ले गया ।
दिन ढ़ले जाकर तपिश सूरज की यूं कुछ कम हुई,
अपने पहलू में उसे सागर का पानी ले गया ।
आ गया अख़बार वाला हादिसे होने के बाद,
बातों ही बातों में वो मेरी कहानी ले गया ।
क्या पता फिर ज़िन्दगी में उनसे मिलना हो न हो,
बस ’शरद’ ये सोचकर उसकी निशानी ले गया ।
Jul 16, 2008
ग़ज़ल : जो अलमारी में हम
वही कुछ चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं ।
कभी आँखों से अश्कों का खजा़ना कम नहीं होता ,
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं ।
दुआएं दी हैं चोरों को हमेशा दो किवाड़ों ने,
कि जिनके डर से ही सब उनको आपस में मिलाते हैं ।
खुदा हर घर में रहता है वो हमको प्यार करता है,
मग़र हम उस को अपने घर में माँ कह कर बुलाते हैं ।
मैं अपने गाँव से जब शहर की जानिब निकलता हूँ ,
तो खेतों में खड़े पौधे इशारों से बुलाते हैं ।
’शरद’ ग़ज़लों में जब भी मुल्क़ की तारीफ़ करता है ,
तो भूखे और नंगे लोग सुनकर मुस्कराते हैं ।
शरद के स्वर में भी सुनें
Jul 15, 2008
मुक्तक : ये फ़नकार सबसे जुदा बोलता है
खरी बात लेकिन सदा बोलता है,
विचरता है ये कल्पनाओं के नभ में,
मग़र इसके मुँह से खुदा बोलता है ।
मुक्तक : बात दलदल की करे जो
:बात दलदल की करे जो वो कमल क्या समझे ?
प्यार जिसने न किया ताजमहल क्या समझे ?
यूं तो जीने को सभी जीते है इस दुनिया में,
दर्द जिसने न सहा हो वो ग़ज़ल क्या समझे ?
Jul 13, 2008
ग़ज़ल " अपनी बातों में असर पैदा कर
तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
बात इक तरफा न बनती है कभी,
जो इधर है वो उधर पैदा कर ।
बात है मीर में जो गालिब में ,
शायरी में वो हुनर पैदा कर ।
अपनी पहचान हो न मज़हब से,
मुल्क़ में ऐसी लहर पैदा कर ।
कुछ भरोसा नहीं है सूरज का,
तू नई रोज़ सहर पैदा कर ।
जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’
एक बच्चे सी नज़र पैदा कर ।
शरद के स्वर में भी सुनें