यारी जो समन्दर को निभानी नहीं आती,
ये तय था सफ़ीनों में रवानी नही आती ।
ये सच है हवा ने ही दगा़ कर दिया वरना-
क्या हम को पतंगें भी उडा़नी नहीं आती ?
साँपों के शहर में समझों मौत है उसकी ,
जिसको भी मधुर बीन बजानी नहीं आती ।
सारे ही सुबू्तॊं की जुबां बन्द जो रहती,
लोगों के जेहन में ये कहानी नहीं आती ।
रिश्तों में भी बदलाव ज़माने में है आया,
अब याद गर्दिशों में भी नानी नहीं आती ।
सीने में समाई है मेरे प्यार की दौलत,
वैसे भी हमें पीठ दिखानी नहीं आती ।
कुछ तुम भी अपनी बात कहो हम भी तो बोलें,
हर रोज़ ऐसी शाम सुहानी नहीं आती ।
जब छाए ’शरद’ महफ़िल में लोग ये बोले ,
औरों को ऐसी चीज़ सुनानी नहीं आती ।
Jul 22, 2008
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1 comment:
साँपों के शहर में समझिए उसकी मौत है,
जिसको सुरीली बीन बजानी नहीं आती ।
सारे सुबूत अपनी जुबां बन्द जो रखते,
लोगों के सामने ये कहानी नहीं आती ।
मज़ा आ गया भाई साहब
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