Jul 22, 2008

ग़ज़ल : यारी जो समन्दर को निभानी..

यारी जो समन्दर को निभानी नहीं आती,
ये तय था सफ़ीनों में रवानी नही आती ।

ये सच है हवा ने ही दगा़ कर दिया वरना-
क्या हम को पतंगें भी उडा़नी नहीं आती ?

साँपों के शहर में समझों मौत है उसकी ,
जिसको भी मधुर बीन बजानी नहीं आती ।

सारे ही सुबू्तॊं की जुबां बन्द जो रहती,
लोगों के जेहन में ये कहानी नहीं आती ।

रिश्तों में भी बदलाव ज़माने में है आया,
अब याद गर्दिशों में भी नानी नहीं आती ।

सीने में समाई है मेरे प्यार की दौलत,
वैसे भी हमें पीठ दिखानी नहीं आती ।

कुछ तुम भी अपनी बात कहो हम भी तो बोलें,
हर रोज़ ऐसी शाम सुहानी नहीं आती ।

जब छाए ’शरद’ महफ़िल में लोग ये बोले ,
औरों को ऐसी चीज़ सुनानी नहीं आती ।

1 comment:

डा ’मणि said...

साँपों के शहर में समझिए उसकी मौत है,
जिसको सुरीली बीन बजानी नहीं आती ।

सारे सुबूत अपनी जुबां बन्द जो रखते,
लोगों के सामने ये कहानी नहीं आती ।

मज़ा आ गया भाई साहब