Jul 18, 2008

ग़ज़ल : पुराने आईने में शक्ल कुछ

पुराने आईने में शक्ल कुछ ऐसी नज़र आई,
कभी सीधी नज़र आई, कभी टेढ़ी नज़र आई ।

हवा से बेरुखी थी तो क़दम मुश्किल से उठते थे,
हुई जब दोस्ती तो चाल में तेज़ी नज़र आई ।

लुटी जब आबरु उसकी तो मैं भी चुप लगा बैठा,
मग़र फिर ख्बाब में अपनी बहन बेटी नज़र आई ।

चले थे खोजने हम मुल्क़ में नायाब चीज़ों को,
तो हमको सबसे बढ़ कर एक बस कुर्सी नज़र आई ।

मैं चलते चलते थककर गिरने ही वाला था सहरा में
मग़र फिर दूर वीराने में इक बस्ती नज़र आई ।

न अपना गाँव है कोई न कोई घर - ठिकाना है,
वहीं डेरा किया हमने जहां रोटी नज़र आई ।

पुकारा जब ’शरद’ का नाम महफ़िल में तो सच पूछो,
उसे बिगडी़ हुई तक़दीर भी बनती नज़र आई ।

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