ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है,
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।
चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।
वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।
चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।
वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।