May 28, 2013
ग़ज़ल
मेरी दादी बैठकर क़िस्से सुनाती है मुझे ।
भूलने की जब भी कोशिश, मैं तुझे करने लगूं,
याद की ख़ुशबू तुम्हारे पास लाती है मुझे ।
वो लता मंगेशकर से भी लगे सुर में अधिक,
जब मेरी माँ लोरियाँ गाकर सुलाती है मुझे ।
है कुआँ इस ओर तो खाई भी है दूजी तरफ़ ,
ज़िन्दगी ऐसी भी राहों पर चलाती है मुझे ।
चाँद ने सूरज से पूछा- रोज़ का चक्कर ये क्यूँ ?,
तब कहा सूरज ने ' ये धरती लुभाती है मुझे ।
ग़ज़ल
बहारों ने कभी फूलों की मक्कारी नहीं देखी
निभाई हो कभी शूलों ने भी यारी,नहीं देखी ।
यहाँ छोटी बड़ी हर बात पर तुम रूठ जाते हो
ख़ुदाया हमने तो ऐसी अदाकारी नहीं देखी ।
हमारी राह में काँटे बिछाने से न कुछ होगा ,
हमारे इस सफ़र की तुमने तैयारी नहीं देखी ।
यहाँ अपने पराए में सदा ही भेद रहता है
परिन्दों में कभी हमने ये बीमारी नहीं देखी ।
अगर उनसे मुहब्बत थी तो खुलकर कह दिया होता
मगर शब्दों की हमने ऐसी ख़ुद्दारी नहीं देखी ।
शरद' अब भी ग़ज़ल के साथ इक घर में ही रहता है
कभी लोगों ने उसकी कोई लाचारी नहीं देखी
Jul 1, 2012
Jan 13, 2011
Oct 29, 2010
ग़ज़ल : तूफ़ां ने खुशियों का मन्ज़र छीन लिया
उसने मुझसे मेरा ही घर छीन लिया ।
यह ताकत की बात नहीं थी. हिम्मत थी,
दुर्बल ने क़ातिल से खंजर छीन लिया ।
साथ दिया जिसने रोगी का सालों तक,
मौत ने उसका वो ही बिस्तर छीन लिया ।
घेराबन्दी की बादल सेना ने और्,
सूरज से किरणों का गट्ठर छीन लिया ।
मुझको सत्ता में पहुंचाकर लोगों ने,
खुद से ही मिलने का अवसर छीन लिया ।
तिकडमबाज़ी ने सम्मान दिलाया पर
मुझसे मेरे फ़न का मन्तर छीन लिया ।
भूख, गरीबी, लाचारी के पंजों ने,
कुछ बच्चों का बचपन अक्सर छीन लिया ।
Sep 17, 2010
खुश होता है दिल ...
जब अमन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
देश पर गन्दी नज़र डाले सदा उस शख्स के,
जब दमन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
द्वैष, नफ़रत की भड़कती जा रही इस आग के,
जब शमन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
कान फ़ोढू शोर वाले गीत के आगे कभी,
जब भजन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
फ़ूल खूशबू बाँटते निस्वार्थ हो ऐसे किसी
जब चमन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
लिख के मुंशी जी गए जो सब कथाएं श्रेष्ठ हैं ,
जब कफ़न की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
यूं तो बातें हैं ’शरद’ दुल्हन के जीवन में कईं,
जब सजन की बात चलती है तो खुश होता है दिल ।
Sep 10, 2009
ग़ज़ल : ज़िन्दगी की साँझ ज्यों ज्यों ढल रही है
एक बस तेरी कमी ही खल रही है ।
मुँह लगा है ख़ून परवाने का उसके ,
शाम होते ही शमा फिर जल रही है ।
हौसला तो देखिए इस नाव का भी,
मूंग छाती पर नदी की दल रही है ।
चाल अपनी ज़िन्दगी ने कब कि चल दी,
मौत अब तो चाल अपनी चल रही है ।
चार पहियों पर सदा चलता था, उसकी,
चार कन्धों पर सवारी चल रही है ।
वो ’शरद’ रोटी भी तेरी छीन लेंगे,
दाल अवसरवादियों की गल रही है ।
Sep 1, 2009
ग़ज़ल : कभी जागीर बदलेगी कभी सरकार बदलेगी
मग़र तक़दीर तो अपनी बता कब यार बदलेगी ?
अगर सागर की यूं ही प्यास जो बढती गई दिन दिन,
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी ।
हज़ारों साल में जब दीदावर होता है इक पैदा,
ऒ ! नर्गिस अपने रोने की तू कब रफ़्तार बदलेगी ?
सदा कल के मुकाबिल आज को हम कोसते आए,
मगर इस आज की सूरत भी कल हर बार बदलेगी ।
वो सीना चीर के नदिया का फिर आगे को बढ़ जाना,
बुरी आदत सफ़ीनों की भंवर की धार बदलेगी ।
’शरद’ पढ़ लिख गया है पर अभी फ़ाके बिताता है,
ख़बर उसको न थी क़िस्मत , जो हों कलदार बदलेगी ।
Mar 21, 2009
ग़ज़ल " फ़ना जब भी हमारे राज़ होंगे.
तो जीने के अलग अन्दाज़ होंगे ।
खफ़ा उनसे मैं होना चाहता हूँ,
मग़र डर है कि वो नाराज़ होंगे ।
ज़रा पन्नों को हौले से पलटना,
वहाँ नाज़ुक- से कुछ अल्फ़ाज़ होंगे ।
बहुत महफ़ूज़ है पिंजड़े में चिड़िया,
गगन में तो हज़ारों बाज़ होंगे ।
अभी तो हैं तमंचे उनके हाथों,
वो दिन कब आएगा जब साज़ होंगे ।
’शरद’ के राज़ ही जो खोलता हो ,
तो फ़िर उसके वो क्यों हमराज़ होंगे ।
शरद के स्वर में भी सुनें
Jan 28, 2009
ग़ज़ल : मेरा साया मुझे हर वक्त कुछ
मगर ये साथ देता है तो फ़िर अपना सा लगता है।
बिताते हैं सितारे भी तो रातें जाग कर हरदम,
अब अपना दर्द उनके सामने अदना सा लगता है।
नदी जब सूख जाती है किनारे खुश बहुत होते ,
दख़ल देना किसी का बीच में गन्दा सा लगता है।
अगरबत्ती जलाने का हो मक़सद कुछ भी अब उनका,
मुझे ये क़ैद से खुशबू रिहा करना सा लगता है।
भले कितना बडा़ बन जाए अब इन्सान दुनिया में,
मगर वो उस की माँ को तो सदा बच्चा सा लगता है।
क़लम अपनी भी इक दिन देखना दुनिया बदल देगी,
’शरद’ ये सोचता है तो उसे सपना सा लगता है।
शरद के स्वर में भी सुनें
Aug 8, 2008
Jul 31, 2008
ग़ज़ल : उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
उन हसीं लम्हों को फिर आबाद करना
तुम कभी बचपन के दिन भी याद करना ।
लौट आएं फिर से वो गुज़रे ज़माने,
तुम खुदा से बस यही फ़रियाद करना ।
दिल तुम्हारा भी उडेगा आस्मां में ,
कै़द से पंछी कोई आज़ाद करना ।
तुम न रहना नाखुदा के ही भरोसे ,
तुम खुदा को भी सफ़र में याद करना ।
कब मिलेगा वक़्त जो हमको मिला है ?
बेवज़ह ही मत इसे बरबाद करना ।
मोम की मानिन्द रखना दिल को अपने,
हौसले को पर ’शरद’ फ़ौलाद करना ।
Jul 25, 2008
ग़ज़ल : इस जहाँ में अब ये किस्सा आम है
प्यार जो करता है वो बदनाम है ।
वो तो इंसां को खुदा है मानता ,
इस तरह का मुझ पे इक इल्जा़म है ।
सारी दुनियां को वो ठोकर मारता,
जिसके हाथों में सुरा और् जाम है ।
खुश है वो बाजी़ बिछा कर मुल्क़ मेँ,
जिनके पत्तों में तुरुप भी राम है ।
या खुदा अगले जनम ये मत कहूं ,
पिछले जन्मों का ही ये अञ्जाम है ।
कह गए रहिमन कि पानी राखिए,
आजकल रोटी का मँहगा दाम है ।
ज़िक्र जिसका हर जु़बां पर आ रहा,
उसके होठों पर ’शरद’ का नाम है ।
Jul 24, 2008
ग़ज़ल : दर्द के साथ दोस्ती कर ली
इसलिए मैंनें खुद्कुशी कर ली ।
अश्क़ आँखों में कै़द रह न सके,
दिल की हालत की मुखबरी कर ली ।
उनकी आँखों में जो सागर देखा,
हमने आँखों में इक नदी कर ली ।
ज़िन्दगी को संवारने के लिए,
हमने बरबाद ज़िन्दगी कर ली ।
हाले दिल जब किसी से कह न सका,
मैनें हमराज़ डायरी कर ली ।
अब इबादत का घर भी साफ़ नहीं,
हमने उसमें भी गन्दगी कर ली ।
मेरी हिम्मत की दाद दें मैनें,
शायरों बीच शायरी कर ली ।
दोस्त उसका भी क्या बना तू ’शरद’,
इस जहाँ से ही दुश्मनी कर ली ।
Jul 23, 2008
ग़ज़ल : बहुत से लोग नंगे पाँव जब..
उन्हें बस देखने भर से हमारे पैर जलते हैं ।
न जाने क्यूं खु़दा करता है इतना भेद बच्चों में ,
कोई महलों में रहते हैं कोई गलियों में पलते हैं ।
ये दौलत हाथ का है मैल कहते है सुना सबको,
जिन्हें मिलती नहीं है वे तभी तो हाथ मलते हैं ।
भले सूरज के जैसा कोई भी बन जाए दुनियां में,
पर ऐसे लोग भी जब वक़्त आता है तो ढ़लते हैं ।
बुजु़र्गों की बदौलत ही रिवायत है अभी ज़िन्दा
नहीं तो हम सभी बस वक़्त के साँचे में ढ़लते हैं ।
बिना सोचे, बिना समझे जो कुछ भी बोलते रहते,
कुछ ऐसे शख्स़ ही दुनियां में सब लोगों को खलते हैं ।
ग़ज़ल सुनकर ’शरद’ की लोग आपस में लगे कहने,
रहा सुनने को कुछ बाक़ी नहीं, अब घर को चलते हैं ।
Jul 22, 2008
ग़ज़ल : यारी जो समन्दर को निभानी..
ये तय था सफ़ीनों में रवानी नही आती ।
ये सच है हवा ने ही दगा़ कर दिया वरना-
क्या हम को पतंगें भी उडा़नी नहीं आती ?
साँपों के शहर में समझों मौत है उसकी ,
जिसको भी मधुर बीन बजानी नहीं आती ।
सारे ही सुबू्तॊं की जुबां बन्द जो रहती,
लोगों के जेहन में ये कहानी नहीं आती ।
रिश्तों में भी बदलाव ज़माने में है आया,
अब याद गर्दिशों में भी नानी नहीं आती ।
सीने में समाई है मेरे प्यार की दौलत,
वैसे भी हमें पीठ दिखानी नहीं आती ।
कुछ तुम भी अपनी बात कहो हम भी तो बोलें,
हर रोज़ ऐसी शाम सुहानी नहीं आती ।
जब छाए ’शरद’ महफ़िल में लोग ये बोले ,
औरों को ऐसी चीज़ सुनानी नहीं आती ।
Jul 21, 2008
ग़ज़ल : जब तलक आसमान बाकी है
पंछियों की उडान बाकी़ है ।
अभी लंका ही ठीक है सीता,
अभी इक इम्तहान बाक़ी है ।
चीर ज्यों द्रोपदी का बढ़ता गया,
उसका अब भी लगान बाकी़ है ।
शेर पेडो़ पे चढ़ नही पाए,
इसलिए ये मचान बाकी़ है ।
कैसे निर्दोष मैं कहूं खुद को,
अभी तेरा बयान बाकी़ है ।
ये ग़ज़ल सबको भली लगती है,
इसके शे’रों में जान बाकी़ है ।
माल लूटा ’शरद’ रकीबों ने,
अब तो बस दास्तान बाकी़ है ।
ग़ज़ल : तलवारें जब भी मियान मे...
ऐसा दौर तभी आता है ख़ून की नदियां बहतीं हैं ।
बचपन हँसी ख़ुशी बीता करता था जिनको सुन सुनकर,
वे कहानियाँ दादी के होठों पर आज तड़पतीं हैं ।
उनका धीरज टूट गया या यह ऐलान-ए-बगा़बत है,
बिन मौसम जो आज बदलियाँ चारों ओर बरसतीं हैं ।
दु:ख में भी मस्ती बिखेरना सीखे कोई कलियों से,
पल भर का जीवन पाकर भी देखो खूब महकतीं हैं ।
अपनों से आतंकित हो कर चलें दूसरी दुनियां में,
शायद अब ये सोच मछलियाँ खुद ही जाल में फंसतीं हैं ।
वही ढा़क के तीन पात हैं चाल वही बेढ़ंगी है,
कहने को तो कितनी ही सरकारे ’शरद’ बदलतीं हैं ।
ग़ज़ल : आंतडियों से मिलकर उसका ..
ख़ंजर का चेहरा भी देखो शरम के मारे लाल हुआ ।
एक समन्दर के बावत बस इतना ही हम जान सके,
कई कश्तियां लील गया वो तभी तो मालामाल हुआ ।
फूलों ने तानाशाही का वो भी आलम देखा है,
जिसने गर्दन ऊँची की गुलशन में वही हलाल हुआ ।
मुझे देखते ही वो उठकर जब चुपचाप लगे जाने,
समझ गया कि मेरे नाम पर उनके घर में बबाल हुआ ।
चाँद पे जब आदम पहुँचा तो देख वहाँ की हालत को,
इसीलिए क्या घर छोड़ा था मन में एक सवाल हुआ ।
ज्योतिषियों ने मेरे मरने का जो दिन बतलाया था,
निकल गया पर मौत न आई दिल में यही मलाल हुआ ।
Jul 20, 2008
ग़ज़ल : इन दुकानों में सजा सामान ...
पहले जैसा अब कहाँ पर तीज या त्यौहार है ।
दीप थोडी़ देर ही जलकर के देखो बुझ गए,
अब न वैसा तेल है न तेल में वो धार है ।
खिड़कियाँ ही जब मकानों की सड़क की ओर हैं,
फिर शिकायत क्यों ? सड़क का आदमी बदकार है ।
सिर्फ़ नेताओं की बातें, क़त्ल, चोरी, अपहरण,
बस यही मिलता जहां वो मुल्क़ का अख़बार है ।
तुम मुबारकबाद दिल से दो या मत दो ग़म नहीं,
खा के दावत, दो लिफ़ाफा ये बचा व्यवहार है ।
भेद अश्कों ने कभी ग़म और खुशी में न किया,
दोनों सूरत में छलककर कर दिया इज़हार है ।
क्यूं जनम लेता नहीं किस सोच में बैठा है वो ?
आज भी धरती पे चारों ओर अत्याचार है ।
तू ’शरद’ यारों की खातिर चैन से कब रह सका,
तुझको आता ही नहीं करना कभी इनकार है ।
Jul 19, 2008
ग़ज़ल : हमारी मिन्नतों पर वो अगर कुछ ..
ज़माना नाम उसको फिर कभी भगवान न देता ।
मुझे हर हाल में चाहत तुम्हारी ज़िन्दा रखनी थी,
तुम्हारे इक इशारे पर मैं वरना जान न देता ।
न होती उसको मेरे चैन से सोने की जो चिन्ता,
मुझे आराम करने के लिए शमशान न देता ।
हुकूमत न रही उसकी, खबर जाहिर न की उसने,
यही डर था कि फिर कोई उसे सम्मान न देता ।
सज़ा उसकी सुनी तो मैं भी अन्दर तक तड़प उट्ठा,
यही अब दिल में आता है कि मैं वो बयान न देता ।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे सिर्फ़ अब मेले ?
अगर वो जानता तो देश पर बलिदान न देता ।
ग़ज़ल : ग़र ज़माने का करम उसको कभी
वो सज़ा हमको मिलेगी सब यहाँ जल जाएगा ।
यूं तो हमने खैरियत लिख दी उन्हें मज़मून में,
हम शिकस्ता हाल हैं उनको पता चल जाएगा ।
इतनी बारिश में अगर जो घर तुम्हारा बह गया,
फ़िक्र क्या है अब ख़ुदा के घर में तू पल जाएगा ।
हमने पूछा उस जगह अब क्यूं इबादत बन्द है,
हँस के बोले कुछ दिनों तक हादसा टल जाएगा ।
डाकिए ने मौत की चिट्ठी न पंहुचाई ’शरद’,
ये समझकर ’जो यहाँ आया है सो कल जाएगा ।
ग़ज़ल : जब दिलों में प्यार का मंज़र बनेगा
देखना उस दिन ख़ुदा का घर बनेगा ।
बन गया अपने वतन का वो तो लीड़र,
कुण्डली में था कि जो तस्कर बनेगा ।
है यकीं इक दिन ख़ुदा देगा मुझे भी,
पर न जाने कब मेरा छ्प्पर बनेगा ।
सांस ले ली बाप ने भी आख़िरी अब,
फूल जैसा भाई भी नश्तर बनेगा ।
लग गई फिर आग कच्ची बस्तियों में,
सुन रहे इक सेठ का दफ़्तर बनेगा ।
अब भटकने का ’शरद’ को डर नहीं है,
उसका रहबर मील का पत्थर बनेगा ।
ग़ज़ल : इतना ही एहसास बहुत है
वो अब मेरे पास बहुत है ।
उसके आगे सच्चे मन से,
दो पल ही अरदास बहुत है ।
क़िस्मत न हो सीता जैसी,
महल हैं कम, बनवास बहुत है ।
जो हैं पानीदार यहाँ पर,
उनकी देखो प्यास बहुत है ।
ये सुनना गाली लगता है,
’तू अफ़सर का खा़स बहुत है’ ।
अन्तिम इच्छा पूछ रहे हो,
जब जीने की आस बहुत है ।
जो मज़हब सबको जीने दे,
उस पर ही विश्वास बहुत है ।
कुछ सराहते ग़ज़ल ’शरद’ की,
कुछ कहते बकबास बहुत है ।
शरद के स्वर में भी सुनें
ग़ज़ल : पत्थ्रर सा जो दिल होता है
वो फिर किस काबिल होता है ।
तुझे भूलने की कोशिश ही,
काम बड़ा मुश्किल होता है ।
पहले तिल तिल खुद मरता है ,
तब कोई का़तिल होता है ।
कागज़ पर मैं दिल रख देता,
जि़क्र सरे महफ़िल होता है ।
क़हर तो लहरें ही ढ़ातीं हैं,
रुस्वा हर साहिल होता है ।
जब तक आए नहीं फ़ैसला,
वक्त बड़ा बोझिल होता है ।
क़िस्मत देखो आज ’शरद’ भी,
कवियों में शामिल होता है ।
ग़ज़ल : बस्तियों के लोग
इसलिए अपराध दंगे हो रहे हैं ।
उनको अपना घर बनाने की है सूझी,
मन्दिरों के नाम चन्दे हो रहे हैं ।
जो लगाने में है माहिर एक मजमा,
सन्त और ईसा के बन्दे हो रहे हैं ।
क़ातिल-ओ-मुंसिफ मिले जल्लाद से,
बेअसर फाँसी के फन्दे हो रहे हैं ।
आप दिल से ही दुआ दे दीजिए,
सोचिए मत हाथ गन्दे हो रहे हैं ।
कल तलक जो गालियां देते रहे थे,
वे ’शरद’ अर्थी के कन्धे हो रहे हैं ।
ग़ज़ल : जब से मेघों से मुहब्बत हो गई
सूर्य की धुंधली सी रंगत हो गई है ।
झूमता है चन्द्रमुख को देख सागर,
आदमी सी इसकी आदत हो गई है ।
ख़ुद को बौना कर लिया है आदमी ने,
उस पे हाबी अब शरारत हो गई है ।
जाने कितने लोग इस दिल में बसे हैं,
बस्तियों सी इसकी हालत हो गई है ।
जब मुहब्बत का सबक पढ़ने लगे तो,
उससे छोटी हर इबादत हो गई है ।
मिल रहीं इस बात से खुशियाँ ’शरद’ को
दूसरों को ग़म में राहत हो गई है ।
Jul 18, 2008
ग़ज़ल : पुराने आईने में शक्ल कुछ
कभी सीधी नज़र आई, कभी टेढ़ी नज़र आई ।
हवा से बेरुखी थी तो क़दम मुश्किल से उठते थे,
हुई जब दोस्ती तो चाल में तेज़ी नज़र आई ।
लुटी जब आबरु उसकी तो मैं भी चुप लगा बैठा,
मग़र फिर ख्बाब में अपनी बहन बेटी नज़र आई ।
चले थे खोजने हम मुल्क़ में नायाब चीज़ों को,
तो हमको सबसे बढ़ कर एक बस कुर्सी नज़र आई ।
मैं चलते चलते थककर गिरने ही वाला था सहरा में
मग़र फिर दूर वीराने में इक बस्ती नज़र आई ।
न अपना गाँव है कोई न कोई घर - ठिकाना है,
वहीं डेरा किया हमने जहां रोटी नज़र आई ।
पुकारा जब ’शरद’ का नाम महफ़िल में तो सच पूछो,
उसे बिगडी़ हुई तक़दीर भी बनती नज़र आई ।
विकल्प के कार्यक्रम में कवि एवं शायर
ग़ज़ल : दिल के छालों का ज़िक्र आता है
उनकी चालों का ज़िक्र आता है ।
प्यार अब बांटने की चीज़ नहीं,
शूल, भालों का ज़िक्र आता है ।
सूर, मीरां, कबीर मिलते नहीं,
बस रिसालों का ज़िक्र आता है ।
लोग जब हक़ की बात करते हैं,
बन्द तालों का ज़िक्र आता है ।
जब बिना शह ही मात खाई है,
कुछ दलालों का ज़िक्र आता है ।
आग जब दिल में जलने लगती है,
तब मशालों का ज़िक्र आता है ।
जल के मिट तो रहे थे परवाने,
पर उजालों का ज़िक्र आता है ।
पाँच वर्षों में ’शरद’ भूखों के,
फिर निवालों का ज़िक्र आता है ।
ग़ज़ल : आप तो बस अपने दम खम..
किसलिए फिर मुझमें हम दम देखते हैं ।
याद जब आते कभी बचपन के वो दिन,
तब पुराने एलबम हम देखते हैं ।
हमने खंज़र को भी दिल से है लगाया,
किस तरह निकलेगा ये दम देखते हैं ।
जो तकाजे़ के लिए बैठे हैं घर में,
चिलमनों की ओर हरदम देखते हैं ।
क्या सियासत की हवा चलने लगी है ?
का़तिलों के पास मरहम देखते हैं ।
मौत पर उनकी भले कोई न रोए,
पर झुके आधे ये परचम देखते हैं ।
महफ़िलों में जब से शिरकत की ’शरद’ ने,
लोग औरों की तरफ़ कम देखते हैं ।
शरद के स्वर में भी सुनें
Jul 17, 2008
ग़ज़ल : आखिरी वक्त यूं तो दूर न था
वो तो शायद उसे मंजू़र न था ।
मुझे मालिक का नमक ले बैठा,
वरना इतना कभी मजबूर न था ।
कौन सा ऐसा ज़माना था कहो,
किस ज़माने में ये दस्तूर न था ।
फिर गए साल ये सौगात मिली,
फिर कई मांगों में सिन्दूर न था ।
अब कोई लाख़ बहाने कर ले,
गाँव वो शहर से कुछ दूर न था ।
नाम उनका है जो बदनाम हैं लोग,
तू ’शरद’ इसलिए मशहूर न था ।
ग़ज़ल : ये बडा एहसान है
हर क़दम पर अब यहाँ भगवान है ।
जो बुझा पाई न नन्हे दीप को,
ये हवाओं का भी तो अपमान है ।
फिर खिलौनों की दुकाने सज गईं,
मुश्किलों में बाप की अब जान है ।
दफ़्न है सीने में मेरी आरजू़ ,
बन गया दिल जैसे कब्रिस्तान है ।
देखता ही शब्द बेचारा रहा,
अर्थ को मिलता रहा सम्मान है ।
जब कोई प्यारा सा बच्चा हँस दिया,
यूं लगे सरगम भरी इक तान है ।
आप सबके ख्बाब हो पूरे सभी,
बस ’शरद’ के दिल में ये अरमान है ।
शरद के स्वर में भी सुनें
गज़ल : जब कबाडी़ घर से कुछ
वो मेरे बचपन की यादें भी सुहानी ले गया ।
इस तरह सौदा किया है आदमी से वक़्त ने,
तज़रुबे कुछ दे के वो उसकी जवानी ले गया ।
दिन ढ़ले जाकर तपिश सूरज की यूं कुछ कम हुई,
अपने पहलू में उसे सागर का पानी ले गया ।
आ गया अख़बार वाला हादिसे होने के बाद,
बातों ही बातों में वो मेरी कहानी ले गया ।
क्या पता फिर ज़िन्दगी में उनसे मिलना हो न हो,
बस ’शरद’ ये सोचकर उसकी निशानी ले गया ।
Jul 16, 2008
ग़ज़ल : जो अलमारी में हम
वही कुछ चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं ।
कभी आँखों से अश्कों का खजा़ना कम नहीं होता ,
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं ।
दुआएं दी हैं चोरों को हमेशा दो किवाड़ों ने,
कि जिनके डर से ही सब उनको आपस में मिलाते हैं ।
खुदा हर घर में रहता है वो हमको प्यार करता है,
मग़र हम उस को अपने घर में माँ कह कर बुलाते हैं ।
मैं अपने गाँव से जब शहर की जानिब निकलता हूँ ,
तो खेतों में खड़े पौधे इशारों से बुलाते हैं ।
’शरद’ ग़ज़लों में जब भी मुल्क़ की तारीफ़ करता है ,
तो भूखे और नंगे लोग सुनकर मुस्कराते हैं ।
शरद के स्वर में भी सुनें
Jul 15, 2008
मुक्तक : ये फ़नकार सबसे जुदा बोलता है
खरी बात लेकिन सदा बोलता है,
विचरता है ये कल्पनाओं के नभ में,
मग़र इसके मुँह से खुदा बोलता है ।
मुक्तक : बात दलदल की करे जो
:बात दलदल की करे जो वो कमल क्या समझे ?
प्यार जिसने न किया ताजमहल क्या समझे ?
यूं तो जीने को सभी जीते है इस दुनिया में,
दर्द जिसने न सहा हो वो ग़ज़ल क्या समझे ?
Jul 13, 2008
ग़ज़ल " अपनी बातों में असर पैदा कर
तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
बात इक तरफा न बनती है कभी,
जो इधर है वो उधर पैदा कर ।
बात है मीर में जो गालिब में ,
शायरी में वो हुनर पैदा कर ।
अपनी पहचान हो न मज़हब से,
मुल्क़ में ऐसी लहर पैदा कर ।
कुछ भरोसा नहीं है सूरज का,
तू नई रोज़ सहर पैदा कर ।
जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’
एक बच्चे सी नज़र पैदा कर ।
शरद के स्वर में भी सुनें